मातृभाषा उन्नयन संस्थान

मातृभाषा उन्नयन संस्थान - परिचय

मातृभाषा उन्नयन संस्थान - परिचय

हिन्दी भाषा के प्रसार, भारत की सांस्कृतिक अखण्डता की रक्षा और संस्कारों का सिंचन कर वैभवशाली भारत की परिकल्पना को साकार करने के उद्देश्य से माँ अहिल्या की नगरी इंदौर से मातृभाषा उन्नयन संस्थान का उदय हुआ। संस्थान का उद्देश्य है हिन्दी को भारत की राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाया जाए। संस्थान के संरक्षक वरिष्ठ पत्रकार और विचारक डॉ. वेद प्रताप वैदिक जी, सुप्रसिद्ध साहित्यकार अहद प्रकाश जी व अज्ञेय के चौथा सप्तक में शामिल कवि राजकुमार कुम्भज जी हैं। इसके संस्थापक व राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ हैं।

वर्ष 2016 से प्रारम्भ हुई हिन्दी साधना के लक्ष्य में जनभाषा हिन्दी के विस्तार, जनता को जनता की भाषा में न्याय मिलने का प्रबन्ध करना, हिन्दी भाषा के वैज्ञानिक, आर्थिक और सामाजिक प्रभावों को जनमानस तक पहुँचाना, हिन्दी के समृद्ध साहित्य को जनहितार्थ प्रचारित करना, नवांकुर रचनाकारों को सबलता और प्रोत्साहन देते हुए शुचिता कायम रखना जैसे अनेक उद्देश्य सम्मिलित हैं। संस्थान द्वारा राष्ट्रव्यापी ‘हस्ताक्षर बदलो अभियान’ संचालित किया जा रहा है, जिसमें वर्तमान में लगभग 30 लाख से अधिक लोगों द्वारा मय प्रतिज्ञा पत्र के द्वारा हिन्दी में हस्ताक्षर करने की प्रतिज्ञा ली गई है। इन्हीं लाखों लोगों के अवदान के कारण 11 जनवरी वर्ष 2020 को मातृभाषा उन्नयन संस्थान को विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। संस्थान के 7 प्रकल्प हैं, जिनमें हिन्दीग्राम, मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यकार कोश, संस्मय प्रकाशन, मासिक साहित्य ग्राम अख़बार, ख़बर हलचल व सेवा सर्वोपरि सम्मिलित हैं। जनमानस का संस्थान के साथ जुड़कर हिन्दी भाषा के प्रचार में निःस्वार्थ योगदान देना ही संस्थान का असल परिचय है।

मुख्य उद्देश्य

मातृभाषा उन्नयन संस्थान के मुख्य उद्देश्य

 ‘सात’ से जोड़ो अपना ‘साथ’

 

राष्ट्रभाषा : विश्व के सभी बड़े देशों की अपनी एक भाषा ऐसी है जो उस देश का प्रतिनिधित्व करती है, जिसे ‘राष्ट्रभाषा’ कहा जाता है। किन्तु विडम्बना यह है कि भारत की कोई भी आधिकारिक राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी भारत में 50 प्रतिशत से अधिक लोगों द्वारा बोली व समझी जाती है और इसमें वो लक्षण भी है जो राष्ट्रभाषा होने के लिए अनिवार्य है। इसीलिए संस्थान हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रयासरत है।

 

जागरुकता: हिन्दी भाषा को लेकर दक्षिण आदि प्रान्त में भ्रम है, जागरुकता का अभाव है और भाषा के वर्चस्व की लड़ाई को लेकर राजनीति जारी है। ऐसे समय में संस्थान राष्ट्रव्यापी जागरुकता के माध्यम से हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार कर रही है, जागरुकता फैला रहा है।

 

रोज़गारमूलक: किसी भी भाषा की सर्व स्वीकार्यता तभी सम्भव है, जब वह समृद्ध होने के साथ-साथ बाज़ार द्वारा भी स्वीकार की जाए। वर्तमान में भारत में हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेज़ी भी बाज़ार पर कब्ज़ा जमाने के लिए लालायित है। भारत विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है, तो इस दौर में संस्थान भारत में हिन्दी को रोज़गारमूलक भाषा बनाने के लिए भी प्रतिबद्धता के साथ कार्य करेगा।

 

न्याय की भाषा: जनता को जनता की भाषा में न्याय नहीं मिलता। अंग्रेज़ी की विधि शब्दावली क्लिष्ट होने के कारण भारत की भोली-भाली जनता अनावश्यक कष्ट झेलती है। इसीलिए संस्थान 50 प्रतिशत से अधिक बोली समझी जाने वाली हिन्दी भाषा व स्थानीय भाषा में न्यायालय की कार्यवाही की स्थापना के लिए भी प्रतिबद्ध है।

 

त्रिभाषा में शिक्षा व्यवस्था: दौलतसिंह कोठारी आयोग की अनुशंसा के अनुसार देश में मिलने वाली शिक्षा में तीन भाषाओं, मातृभाषा, हिन्दी और विदेशी भाषा, में अध्ययन की अनिवार्यता हो, संस्थान इसके लिए भी प्रतिबद्ध है।

 

तकनीकी दक्षता: वर्तमान युग तकनीकी युग है, ऐसे दौर में हिन्दी भाषा के प्रभुत्व को स्थापित करने व संवर्द्धन के लिए आवश्यक अंग है इसका तकनीकी रूप से सबल होना। हिन्दी के अस्तित्व को चिर स्थाई बनाए रखने के लिए पूर्ण निष्ठा से संस्थान हिन्दी के रचनाकारों और उनके लेखन को संग्रहित कर प्रचार-प्रसार करेगा, जिससे हिन्दी की भव्यता चिरकाल तक स्थाई रहे तथा तकनीकी पहलुओं पर हिन्दी को सबल बनाने के लिए संस्थान प्रतिबद्ध है।

 

साहित्य शुचिता: किसी भी भाषा वैभव का पता उसके समृद्ध साहित्य भंडार से चलता है। हिन्दी की गौरवशाली परम्परा तो बहुत समृद्ध है किन्तु वर्तमान में थोड़े दोष आने लग गए हैं, मातृभाषा उन्नयन संस्थान उन दोषों के अवमूलन हेतु कार्य करेगी।

मातृभाषा उन्नयन संस्थान की विचारधारा

भारत बहुभाषी राष्ट्र हैं, इस भूमि के बारे में कहा भी जाता हैं कि यहाँ अनेकता में एकता का सिद्धांत जीवित हैं। ऐसे कालखंड में मातृभाषा उन्नयन संस्थान भारतीय भाषाओँ के आपसी समन्वय यानि बहुभाषा समन्वय की विचारधारा का प्रतिपादन करता हैं। भारतीय भाषाओँ में आपसी समन्वय स्थापित हो, और प्रथम स्थान पर मातृभाषा में शिक्षा एवं कार्यव्यवहार होना चाहिए। वैसे विभिन्न क्षेत्र और भाषाओँ में विभक्त हैं तो ऐसी स्थिति में देश में एक संपर्क भाषा ऐसी  भी होनी चाहिए जिसको जानने, समझने और बोलने से सम्पूर्ण राष्ट्र में एक सूत्रता का बोध हो, जनमानस को उस भाषा में कार्य करने से देश के प्रत्येक भू भाग पर रहने वाला भारत का नागरिक सहमत और सहज हो। वर्तमान जनगणना के आंकड़े देखे जाएं तो भारत में ५० प्रतिशत से अधिक जनसंख्या ‘हिन्दी’ भाषा में दक्ष हैं। इस अनुसार हिन्दी भारत की संपर्क भाषा के रूप में स्थापित देश की सबसे बड़ी भाषा हैं और यह भारत की पहचान भी हैं।  इन तथ्यों के आधार पर हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करके शासन और जनता को ‘एक राष्ट्र-एक भाषा’ के स्वर को मजबूत करते हुए सम्पूर्ण प्रदेशों और भारत की व्यावसायिक उन्नति की दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए। इसी के साथ सन 1964 में डॉ दौलत सिंह कोठारी आयोग की अनुशंसा का पालन करते हुए शिक्षा नीति में त्रिभाषा फार्मूला स्थापित करना चाहिए।

हिन्दी से अन्य भाषाओँ के समन्वय और हिन्दी जानने-समझने और उपयोग करने से राज्यों में उपलब्ध पर्यटन सम्पदाओं को देश के लोग देखने आएंगे जिससे राज्यों की पर्यटन आय में अभिवृद्धि होगी।  एक राज्य के लोग अन्य राज्यों में रोज़गार खोज सकते हैं, काम कर सकते हैं, व्यापार कर सकते हैं।

भारत के वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह का कहना भी है कि ‘भारत विभिन्न भाषाओं का देश है और हर भाषा का अपना महत्व है परन्तु पूरे देश की एक भाषा होना अत्यंत आवश्यक है जो विश्व में भारत की पहचान बने। आज देश को एकता की डोर में बाँधने का काम अगर कोई एक भाषा कर सकती है तो वो सर्वाधिक बोले जाने वाली हिन्दी भाषा ही है।हम अपनी-अपनी मातृभाषा के प्रयोग को बढाएं और साथ में हिंदी भाषा का भी प्रयोग कर देश की एक भाषा के पूज्य बापू और लौह पुरूष सरदार पटेल के स्वप्न को साकार करने में योगदान दें।’

मातृभाषा उन्नयन संस्थान भाषाई अखण्डता और समन्वय आधारित विचारधारा का पक्षधर है और देश की समस्त भाषाओँ के सम्मान को अक्षुण्ण रखते हुए हिन्दी भाषा को भारत की प्रतिनिधि भाषा अर्थात राष्ट्रभाषा के तौर पर स्थापित करने का भी पक्षधर हैं। इस सिद्धांत से देश की किसी भी भाषा का अहित नहीं होगा, बल्कि समन्वय की नीति से सभी भाषाओँ का सम्मान यथावत रहेगा, उन भाषाओँ के जानकारों में रोज़गार के अवसर उपलब्ध होंगे और हिन्दी को राष्ट्रीय स्तर पर भी बल मिलेगा।

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